Friday, 21 October 2016

एक राजा था। बहुत ही उदार,प्रजावत्सल। सभी का ख्याल रखने वाला। उसके राज्य में अनेक शिल्पकार थे। एक से बढ़कर एक, बेजोड़ राजा ने उन शिल्पकारों की दुर्दशा देखी तो उनके लिए एक बाजार लगाने का प्रयास किया। घोषणा की कि बाजार में संध्याकाल तक जो कलाकृति अनबिकी रहजाएगी, उसको वह स्वयं खरीद लगेगा। राजा का आदेश, बाजार लगने लगा।
एक दिन बाजार में एक शिल्पकार लक्ष्मी की ढेर सारी मूर्तियां लेकर पहुंचा। मूर्तियां बेजोड़ थीं। संध्याकाल तक उस शिल्पकार की सारी की सारी मूर्तियां बिक गईं। सिवाय एक के। वह मूर्ति अलक्ष्मी की थी। अब भला अलक्ष्मी की मूर्ति को कौन खरीदता! उस मूर्ति को न तो बिकना था, न बिकी। संध्या समय शिल्पकार उस मूर्ति को लेकरराजा के पास पहुंचा। मंत्री राजा के पास था। उसने सलाह दी कि राजा उस मूर्ति को खरीदने से इनकार कर दें। अलक्ष्मी की मूर्ति देखकर लक्ष्मीजी नाराज हो सकती हैं। लेकिन राजा अपने वचन से बंधा था।‘मैंने हाट में संध्याकाल तक अनबिकी वस्तुओं को खरीदने का वचन दिया है। अपने वचन का पालन करना मेरा धर्म है। मैं इसमूर्ति को खरीदने से मना कर अपने धर्म से नहीं डिग सकता।’और राजा ने वह मूर्ति खरीद ली।दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर राजा सोने चला तो एक स्त्री की आवाज सुनकर चौंक पड़ा।
राजा अपने महल के दरवाजे पर पहुंचा। देखा तो एक बेशकीमती वस्त्रा, रत्नाभूषण से सुसज्जित स्त्री रो रही है। राजा ने रोने का कारण पूछा।‘मैं लक्ष्मी हूं। वर्षों से आपके राजमहल में रहती आई हूं। आज आपने अलक्ष्मी की मूर्ति लाकर मेरा अपमान किया। आप उसको अभी इस महल से बाहर निकालें।’‘देवि, मैंने वचन दिया है कि संध्याकाल तक तो भी कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसको मैं खरीद लूंगा।’‘उस कलाकार को मूर्ति का दाम देकर आपने अपने वचन की रक्षा कर ली है, अब तो आप इस मूर्ति को फेंक सकते हैं!’‘नहीं देवि, अपने राज्य के शिल्पकारों की कला का सम्मान करना भी मेरा धर्म है, मैं इस मूर्ति को नहीं फेंक सकता।’‘तो ठीक है, अपने अपना धर्म निभाइए। मैं जा रही हूं।’ राजा की बात सुनकर लक्ष्मी बोली और वहां से प्रस्थान कर गई। राजा अपने शयनकक्ष की ओर जाने के लिए मुड़ा। तभी पीछे से आहट हुई। राजा ने मुड़कर देखा, दुग्ध धवल वस्त्रााभूषण धारण किए एक दिव्यआकृति सामने उपस्थित थी। ‘आप?’ राजा ने प्रश्न किया। ‘मैं नारायण हूं। राजन आपने मेरी पत्नी लक्ष्मी का अपमान किया है। मैं उनके बगैर नहीं रह सकता। आप अपने निर्णय परपुनर्विचार करें।’‘मैं अपने धर्म से बंधा हूं देव।’ राजा ने विनम्र होकर कहा।‘तब तो मुझे भी जाना ही होगा।’ कहकर नारायण भी वहां से जाने लगे।
राजा फिर अपने शयनकक्ष में जाने को मुड़ा। तभी एकऔर दिव्य आकृति पर उसकी निगाह पड़ी। कदम ठिठक गए।‘आप भी इस महल को छोड़कर जाना चाहते हैं, जो चले जाइए, लेकिन मैं अपने धर्म से पीछे नहीं हट सकता।’यह सुनकर वह दिव्य आकृति मुस्कराई, बोली।‘मैं तो धर्मराज हूं। मैं भला आपको छोड़कर कैसे जा सकता हूं। मैं तो नारायणको विदा करने आया था।’उसी रात राजा ने सपना देखा। सपने में नारायण और लक्ष्मी दोनों ही थे। हाथ जोड़कर क्षमायाचना करते हुए-‘राजन हमसे भूल हुई है, जहां धर्म है, वहीं हमारा ठिकाना है। हम वापस लौट रहे हैं।’ और सचमुच अगली सुबह राजा जब अपने मंदिर में पहुंचा तो वहां नारायण और नारायणी दोनों ही थे।
आप ऐसी कथाओं पर चाहें वि
कर्मयोगी होना तलवार की धार पर चलकर मंजिल को तक पहुंचना है। सांसारिक प्रलोभनों से दूर होने के लिए उससे भाग जाना कर्म संन्यास में संभव है, मगर कर्मयोगी को तो संसार में रहते हुए ही उसके प्रलोभनों से निस्तार पाना होता है। ऐसे कर्मयोग को साधाकैसे जाए! संसार में रहकर उसके मोह से कैसे दूर रहा जाए, इसके लिए विभिन्न धर्मदर्शनों में अलग-अलग विधान हैं, हालांकि उनकामूलस्वर प्राय एक जैसा है। मुनिगण इसके लिए तत्व-चिंतन में लगे रहते हैं। ऋषिगण मानव-व्यवहार को नियंत्राित और मर्यादित रखने के लिए नूतन विधान गढ़ते रहते हैं। प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा चार पुरुषार्थों की अभिकल्पना भी इसी के निमित्त की गई है।हिंदू परंपरा के चारों पुरुषार्थ असल जीवन के विभिन्न अर्थों में बहुआयामी सिद्धियों के भी सूचक हैं। धर्मरूपी पुरुषार्थ को साधनेका अभिप्राय है, कि हम लोकाचार में पारंगत हो चुके हैं। संसार में रहकर क्या करना चाहिए, और क्या नहीं इस सत्य को जान चुके हैं। और हम जान चुके हैं कि यह समस्त चराचर सृष्टि, भांति।भांति के जीव, वन।वनस्पति एक ही परमचेतना से उपजे हैं। एक ही परम।पिताकी संतान होने के कारण हम सब भाई भाई हैं। ध्यान रहे कि धर्म का मतलब पुरुषार्थ के रूप में सिर्फ परमात्मा तक पहुंचने का, उसकोजानने की तैयारी करना अथवा जान लेना ही नहीं है। ये सब बातें अध्यात्म के खाते में आती हैं। तब धर्म क्या है?इस बारे में मनुस्मृति मेंएक दृष्टांत दिया गया है। धर्म क्या है, यह जानने के लिए ऋषिगण भृगु मुनि के निकट पहुंचे। मुनि के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखते हुए उन्होंने कहा—‘महाराज! हम धर्म जानना चाहते हैं?’ इसपर भृगु जी ने उत्तर दिया–‘जो अच्छे विद्वान लोग हैं, जो सबके प्रति कल्याण-भाव रखते हैं, वे जो आचरण करते हैं, सेवित करते हैं, उनके द्वारा जो आचरित होता है, वही धर्म है। धर्म की इस परिभाषा में न तो आत्मा है, न ही परमात्मा। दूसरे शब्दों में धर्म नैतिकता और सदाचरण का पर्याय है। भारतीय मेधा को अपने अद्वितीय तत्वचिंतन के कारण विश्वभर में सराहना मिली है। प्रमुख भारतीय दर्शनों न्याय, वैशेषिक, जैन, बौद्ध, चार्वाक, मीमांसा और वेदांत आदि सभी में विद्धान मुनिगण अपनी-अपनी तरह से जीवन और सृष्टि के रहस्यों की पड़ताल करने का प्रयास करते हैं। उनके दर्शन में कल्पना की अदभुत उड़ान है। इनमें से जैन, बौद्ध और वेदांत दर्शन तात्विक विवेचना के साथ।साथ जीवनको सरल और सुखमय बनाने के लिए व्यावहारिक सिद्धांत भी देते हैं। बौद्ध अष्ठधम्म पद की राह सुझाता है। जैन इसी तथ्य को और सहजता से जानने के लिए एक कहानी का सहारा लिया जा सकता है।  
वेदांत की भाषा में जो माया है। तो उस पंचमहाभूत से बने घट के मिटते ही उसमें मौजूद सारा जल सागर के जल में समा जाता है। सागर में मिलकर उसी का रूपधारण कर लेता है। यही मोक्ष है जिसका दूसरा अर्थ संपूर्णता भी है, आदमी को जब लगने लगे कि जो भी उसका अभीष्ट था, जिसको वहप्राप्त करना चाहता था, वह उसको प्राप्त हो चुका है। उसकी दृष्टि नीर-क्षीर का भेद करने में प्रवीण हो चुकी है। जिसके फलस्वरूप वह इस संसार की निस्सारता को, उसके मायावी आवरण को जान चुका है। साथ ही वह इस संसार के मूल और उसके पीछे निहित परमसत्ता कोभी पहचानने लगा है। उसे इतना आत्मसात कर चुका है कि उससे विलगाव पूर्णत: असंभव है। अब कोई भी लालच, कोई भी प्रलोभन कोई भी शक्ति अथवा डर उसको अपने निश्चय से डिगा नहीं सकता। इस बोध के साथ ही वह मोक्ष की अवस्था में आ जाता है। तब उसकोजन्म-मरण के चक्र से गुजरना नहीं पड़ता। 
मुक्ति का दूसरा अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। जब ऐसी मुक्ति प्राप्त हो, तब कहा जाता है कि सांसारिक व्याधियों से दूरमन पूरी तरह निस्पृह निर्लिप्त हो चुका है। जैन दर्शन में इस अवस्था को कैवल्य’ कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर ‘केवल वही’ का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा।उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में ‘निर्वाण’ कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘बुझा हुआ’। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।
इच्छा-आकांक्षाओं और भौतिक प्रलोभनों से सम्यक मुक्ति ही निर्वाण है। गीता में इस स्थिति को कर्म, अकर्म और विकर्म के त्रिकोण के द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है। उसके अनुसार संसार में सभी व्यक्तियों के लिए कुछ न कुछ कर्म निर्दिष्ट हैं। जब तक यह मानव देहहै, कर्तव्य से सरासर मुक्ति असंभव है। क्योंकि देह सांस लेने का, आंखें देखने का कान, सुनने का काम करती रहती है। संन्यासी को भीइन कर्तव्यों से मुक्ति नहीं। जब तक प्राण देह में हैं, तब तक उसको देह का धर्म निभाना ही पड़ता है। तब मुक्ति का क्या अभिप्राय: है! बुद्ध कहते हैं कि देह में रहकर भी देह से परे होना संभव है। हालांकि उसके लिए लंबी साधना और नैतिक आचरण की जरूरत पड़ती है। मोक्ष और निर्वाण दोनों ही अवस्थाओं में जीव जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा लेता है। लेकिन मोक्ष मृत्यु के पार की अवस्थाहै। जबकि निर्वाण के लिए जीवन का अंत अनिवार्य नहीं।
गौतम बुद्ध ने सदेह अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया था। जैन दर्शन के प्रवर्त्तकमहावीर स्वामी भी जीते जी कैवल्य-अवस्था को पा चुके थे। किंतु सभी तो उनके जैसे तपस्वी-साधक नहीं हो सकते। तब साधारण जन क्या करें। तो उसके लिए सभी धर्म-दर्शनों में एक ही मंत्र दिया गया है। और वह है अनासक्ति। संसार में रहकर भी संसार के बंधनों से मुक्ति, धन-संपत्ति की लालसा, संबंधों और मोहमाया के बंधनों से परे हो जाना, अपने-पराये के अंतर से छुटटी पा लेना, जो भी अपने पासहै उसको परमात्मा की अनुकंपा की तरह स्वीकार करना और अपनी हर उपलब्धि को ईश्वर के नाम करते जाना, यही मुक्ति तक पहुंचने का सहजमार्ग है। इसी को सहजयोग कहा गया है। उस अवस्था में कामनाओं का समाजीकरण होने लगता है। इच्छाएं लोकहित के साथ जुड़कर पवित्र हो जाती हैं। उस अवस्था में व्यक्ति का कुछ भी अपना नहीं रहता। वह परहित को अपना हित, जनकल्याण में निज कल्याणकी प्रतीति करने लगता है।
दूसरे शब्दों में मुक्ति का एक अर्थ निष्काम हो जाना भी है निष्काम होने का अभिप्राय निष्कर्म होना अथवा कर्म से पलायन नहीं है। कर्म करते हुए, सांसारिक कर्र्मो में अपनी लिप्तता बनाएरखकर भी निष्काम हो जाना सुनने में असंभव और विचित्र सा लगता है? नादान अकर्मण्यता को ही निष्काम्यता का पर्याय मान लेता है। कुछ लोग निष्काम होने के लिए संन्यास की शरण में जाते रहे हैं। लेकिन देह पर संन्यासी बाना धारण कर वन।वन घूमने से तो सचमुचका वैराग्य संभव नहीं। जब तक मन मोहमाया से ग्रस्त है तब तक कर्मसंन्यास की वास्तविक स्थिति कैसे संभव हो सकती है। इस उलझन को सुलझाने का रास्ता भी गीता मैं है। कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा का त्याग कर दो। निष्काम कर्म यानी कर्म करते हुए कर्म का बोध न होने देना, यह प्रतीति बनाए रखना कि मैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्ता तो कोई और है, ‘त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेवसमप्यते’ भावना के साथ सारे कर्म, समस्त कर्मफलों को ईश्वर-निर्मित मानकर उसी को समर्पित करते चले जाना ही कर्मयोग है। कर्म करते हुए फल की वांछा का त्याग ही विकर्म है, और यह प्रतीति कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं, जो किया परमात्मा के लिए किया, जो हुआ परमात्मा के इशारे पर उसी के निमित्त हुआ, यह धारणा कर्म को अकर्म की ऊंचाई जक पहुंचा देती है। संसार से भागकर कर्म से पलायन करने की अपेक्षा संसार में रहते हुए कर्मयोग को साधना कठिन है। इसीलिए तो श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्मसंन्यास कर्मयोग की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है, तो भी कर्मयोगी होना कर्म संन्यासी की अपेक्षा विशिष्ट उससे बढ़कर है:
कर्मयोगेश्व कर्मसंन्यासयात निश्रेयंस कराभुवौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात कर्मयोगी विशिष्यते।।

६. योग दर्शन योग की प्रक्रिया विश्व के बहुत से देशों में प्रचलित है। अधिकांशत: यह आसनों के रूप में जानी जाती है। कहीं-कहीं प्राणायाम भी प्रचलित है। यह आसन इत्यादि योग दर्शन का बहुत ही छोटा भाग है। इस दर्शन की व्यवहारिक और आध्यात्मिक उपयोगिता सर्वमान्य है क्योकि योग के आसन एवं प्राणायाम का मनुष्य के शरीर एवं उसके प्राणों को बलवान एवं स्वस्थ्य बनाने में सक्षम योगदान रहा है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्ष पतंजलि है। यह दर्शन चार पदों में विभक्त है जिनके सम्पूर्ण सूत्र संख्या १९४ है। ये चार पद है: समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद। योग दर्शन के प्रथम दो सूत्र है। अथ योगानुशासनम् ।। १ ।। अर्थात योग की शिक्षा देना इस समस्त शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय समझना चाहिए। योगश्चित्तवृत्ति निरोध: ।। २ ।। अर्थात् चित्त या मन की स्मरणात्मक शक्ति की वृत्तियों को सब बुराई से दूर कर, शुभ गुणो में स्थिर करके, पश्रमेश्वर के समीप अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के प्रयास को योग कहा जाता है। योग है जीवात्मा का सत्य के साथ संयोग अर्थात् सत्य-प्राप्ति का उपाय। यह माना जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है और ज्ञान बुध्दि की श्रेष्ठता से प्राप्त होता है। भगवद्गीता में कहा गया है एवं बूद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना। अर्थात् इस प्रकार बुध्दि से परे आत्मा को जानकर , आत्मा के द्वारा आत्मा को वश में करके (अपने पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है) यही योग है। इसे प्राप्त करने का उपाय योगदर्शन में बताया है। आत्मा पर नियंत्रण बुध्दि द्वारा, यह योग दर्शन का विषय है। इसका प्रारिम्भक पग योगदर्शन में ही बताया है तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। योग० २-१ अर्थात्–तप(निरंतर प्रयत्न), स्वाध्याय(अध्यात्म – विद्या का अध्ययन) और परमात्मा के आश्रय से योग का कार्यक्रम हो सकता है। अष्टांग योग: क्लेशों से मुक्ति पाने व चित्त को समहित करने के लिए योग के ८ अंगों का अभ्यास आवश्यक है। इस अभ्यास की अवधि ८ भागों में विभक्त है- १. यम, २. नियम, ३. शासन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि मुख्यत: योग-क्रियाओं का लक्ष्य है बुतद्ध को विकास देना। यह कहा है कि बुध्दि के विकास का अन्तिम रूप है- ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा।।

६. योग दर्शन
योग की प्रक्रिया विश्व के बहुत से देशों में प्रचलित है। अधिकांशत: यह आसनों के रूप में जानी जाती है। कहीं-कहीं प्राणायाम भी प्रचलित है। यह आसन इत्यादि योग दर्शन का बहुत ही छोटा भाग है।
इस दर्शन की व्यवहारिक और आध्यात्मिक उपयोगिता सर्वमान्य है क्योकि योग के आसन एवं प्राणायाम का मनुष्य के शरीर एवं उसके प्राणों को बलवान एवं स्वस्थ्य बनाने में सक्षम योगदान रहा है।
इस दर्शन के प्रवर्तक महर्ष पतंजलि है। यह दर्शन चार पदों में विभक्त है जिनके सम्पूर्ण सूत्र संख्या १९४ है। ये चार पद है: समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद।
योग दर्शन के प्रथम दो सूत्र है।
अथ योगानुशासनम् ।। १ ।।
अर्थात योग की शिक्षा देना इस समस्त शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय समझना चाहिए।
योगश्चित्तवृत्ति निरोध: ।। २ ।।
अर्थात् चित्त या मन की स्मरणात्मक शक्ति की वृत्तियों को सब बुराई से दूर कर, शुभ गुणो में स्थिर करके, पश्रमेश्वर के समीप अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के प्रयास को योग कहा
जाता है।
योग है जीवात्मा का सत्य के साथ संयोग अर्थात् सत्य-प्राप्ति का उपाय। यह माना जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है और ज्ञान बुध्दि की श्रेष्ठता से प्राप्त होता है।
भगवद्गीता में कहा गया है
एवं बूद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
अर्थात् इस प्रकार बुध्दि से परे आत्मा को जानकर , आत्मा के द्वारा आत्मा को वश में करके (अपने पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है) यही योग है।
इसे प्राप्त करने का उपाय योगदर्शन में बताया है। आत्मा पर नियंत्रण बुध्दि द्वारा, यह योग दर्शन का विषय है। इसका प्रारिम्भक पग योगदर्शन में ही बताया है
तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। योग० २-१
अर्थात्–तप(निरंतर प्रयत्न), स्वाध्याय(अध्यात्म – विद्या का अध्ययन) और परमात्मा के आश्रय से योग का कार्यक्रम हो सकता है।
अष्टांग योग: क्लेशों से मुक्ति पाने व चित्त को समहित करने के लिए योग के ८ अंगों का अभ्यास आवश्यक है। इस अभ्यास की अवधि ८ भागों में विभक्त है- १. यम, २. नियम, ३. शासन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि
मुख्यत: योग-क्रियाओं का लक्ष्य है बुतद्ध को विकास देना। यह कहा है कि बुध्दि के विकास का अन्तिम रूप है- ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा।।

५. न्याय दर्शन महिर्ष अक्षपाद गौतम द्वारा प्रणीत न्याय दर्शन एक आस्तिक दर्शन है जिसमें ईश्वर कर्म-फल प्रदाता है। इस दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण है। न्याय शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है परन्तु दार्शनिक साहित्य में न्याय वह साधन है जिसकी सहायता से किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्ध या किसी सिद्धान्त का निराकरण होता है- नीयते प्राप्यते विविक्षितार्थ सिद्धिरनेन इति न्याय:।। अत: न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में पा¡च अध्याय है तथा प्रत्येक अध्याय में दो दो आह्रिक हैं। कुल सूत्रों की संख्या ५३९ हैं। न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पडद्यताल के उपायों का वर्णन किया गया है कहा है कि सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व है। उन तत्वों के द्वारा किसी भी पदार्थ की सत्यता (वास्तविकता) का पता किया जा सकता है। ये सोलह तत्व है- (१) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३)संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टान्त, (६) सिद्धान्त, (७)अवयव, (८) तर्क (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितण्डा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और (१६) निग्रहस्थान इन सबका वर्णन न्याय दर्शन में है और इस प्रकार इस दर्शन शास्त्रको तर्क करने का व्याकरण कह सकते हैं। वेदार्थ जानने में तर्क का विशेष महत्व है। अत: यहदर्शन शास्त्र वेदार्थ करने में सहायक है। दर्शनशास्त्र में कहा है- तत्त्वज्ञानान्नि: श्रेयसाधिगम:।। अर्थात्- इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निश्रेयस् की प्राप्ति होती है।(सत्य की खोज में सफलता प्राप्ति होती है)। न्याय दर्शन के चार विभाग- १. सामान्य ज्ञान की समस्या का निराकरण २. जगत की समस्या का निराकरण ३. जीवात्मा की मुक्ति ४. परमात्मा का ज्ञान न्याय दर्शन में आघ्यात्मवाद की अपेक्षा तर्क एवं ज्ञान का आधिक्य हैइसमें तर्क शास्त्र का प्रवेश इसलिए कराया गया क्योंकि स्पष्ट विचार एवं तर्क-संगत प्रमाण परमानन्द की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। न्याय दर्शन में १. सामान्य ज्ञान २. संसार की क्लिष्टता ३. जीवात्मा की मुक्ति एवं ४. परमात्मा का ज्ञान- इन चारों गंभीर उद्देश्यों को लक्ष्य बनाकर प्रमाण आदि १६ पदार्थ उनके तार्किक समाधान के माने गये है किन्तु इन सबमे प्रमाण ही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। किसी विषय में यथार्थ ज्ञान पर पहुंचने और अपने या दूसरे के अयथार्थ ज्ञान की त्रुटि ज्ञात करना ही इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। दु:ख का अत्यन्तिक नाश ही मोक्ष है। न्याय दर्शन की अन्तिम दीक्षा यही है कि केवल ईश्वरीयता ही वांछित है, ज्ञातव्य है और प्राप्य है- यह संसार नहीं। पदार्थ और मोक्ष मुक्ति के लिए इन समस्याओं का समाधान आवश्यक है जो १६ पदार्थों के तत्वज्ञान से होता है। इनमें प्रमाण और प्रमेय भी है। तत्वज्ञान से मिथ्या-ज्ञान का नाश होता है। राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके यही मोक्ष दिलाता है। सोलह पदार्थों का तत्व-ज्ञान निम्नलिखित क्रम से मोक्ष का हेतु बनाता है। दु:ख-जन्म प्रवृति- दोष मिथ्यामानानाम उत्तरोत्तरापाये तदनंन्तरा पायायदपवर्ग:।। अर्थात-दु:ख, जन्म, प्रवृति(धर्म-अधर्म),दोष (राग,द्वेष), और मिथ्या ज्ञान-इनमें से उत्तरोतर नाश द्वाराइसके पूर्व का नाश होने से अपवर्ग अर्थात् मोक्ष होता है। इनमें से प्रमेय के तत्व-ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है और प्रमाण आदि पदार्थ उस ज्ञान के साधन है। युक्ति तर्क है जो प्रमाणों की सहायता करता है।पक्ष-प्रतिपक्ष के द्वारा जो अर्थ का निश्चय है, वही निर्णय है। दूसरे अभिप्राय से कहे शब्दों का कुछ और ही अभिप्राय कल्पना करके दूषण देना छल है। आत्मा का अस्तित्व आत्मा, शरीर और इन्द्रियों में केवल आत्मा ही भोगने वाला है। इच्छा,द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख और ज्ञान उसके चिह्म है जिनसे वह शरीर से अलग जाना पड़ता है। उसके भोगने का घर शरीर है। भोगने के साधन इन्द्रिय है। भोगने योग्य विषय (रूप,रस,गंध, शब्द और स्पर्श) ये अर्थ है उस भोग का अनुभव बुध्दि है और अनुभव कराने वाला अंत:करण मन है। सुख-दु:ख का कराना फल है और अत्यान्तिक रूप से उससे छूटना ही मोक्ष है


४. वैशेषिक दर्शन मूल पदार्थ-परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का वर्णन तो ब्रह्यसूत्र में है। ये तीन पदार्थ ब्रह्य कहाते है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। इनका वर्णन वैशेषिक दर्शन में है। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष कणाद है। चूंकि ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है। वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र है- अथातो धर्म व्याख्यास्याम:।। अब हम धर्म की व्याख्या करेंगे। यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:।। जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है वह धर्म है। कणाद के वैशेषिक दर्शन की गौतम के न्याय-दर्शन से भिन्नता इस बात में है कि इसमें छब्बीस के बजाय ७ ही तत्वों को विवेचन है। जिसमें विशेष पर अधिक बल दिया गया है। ये तत्व है-द्रव्य, गुण, कर्म, समन्वय,विशेष और अभाव। वैसे वैशेषिक दर्शन बहुत कुछ न्याय दर्शन के समरूप है और इसका लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। न्याय-दर्शन की तरह वैशेषिक भी प्रश्नोत्तर के रूप में ही लिखा गया है। जगत में पदार्थों की संख्या केवल छह है। द्रव्य,गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय। क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम वैशेषिक दर्शन है। धर्म विशेष पसूताद द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां पदार्थांना सधम्र्यवैधम्र्याभ्यिं तत्वज्ञानान्नि: श्रेयसम्।। वैशेषिक १|१|८ अर्थात् धर्म-विशेष से उत्पन्न हुए पदार्थ यथा,द्रव्य,गण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-रूप पदार्थों के सम्मिलित और विभक्त धर्मो के अघ्ययन-मनन और तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। ये मोक्ष विश्व की अणुवीय प्रकृति तथा आत्मा से उसकी भिन्नता के अनुभव पर निर्भर कराता है। वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का निरूपण निम्नलिखित रूप से हुआ है: जल: यह शीतल स्पर्श वाला पदार्थ है। तेज: उष्ण स्पर्श वाला गुण है। काल: सारे कायो की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है। आत्मा: इसकी पहचान चैतन्य-ज्ञान है। मन: यह मनुष्य क अभ्यन्तर में सुख-दु:ख आदिके ज्ञान का साधन है। पंचभूत: पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पंच इन्द्रिय: घ्राण, रसना, नेत्र, त्वचा और श्रोत्र पंच-विषय: गंध,रस,रूप,स्पर्श तथा शब्द बुध्दि: ये ज्ञान है और केवल आत्मा का गुण है। नया ज्ञान अनुभव है और पिछला स्मरण । संख्या: संख्या, परिमाण, पृथकता, संयोग और विभाग ये आदि गुण: सारे गुण द्रव्यों में रहते हैं। अनुभव: यथार्थ(प्रमा, विद्या) एवं अयथार्थ, (अविद्या) स्मृति: पूर्व के अनुभव के संस्कारों से उत्पन्न ज्ञान सुख: इष्ट विषय की प्राप्ति जिसका स्वभाव अनुकूल होता है। अतीत के विषयों के स्मरण एवं भविष्यतमें उनके संकल्प से सुख होता है।सुख मनुष्य का परमोद्देश्य होता है। दु:ख: इष्ट के जाने या अनिष्ट के आने से होता है जिसकी प्रकृति प्रतिकूल होती है। इच्छा: किसी अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना ही इच्छ है जो फल या उपाय के हेतु होती है। धर्म, अधर्म या अदृष्ठ: वेद-विहित कर्म जो कर्ता के हित और मोक्ष का साधन होता है, धर्म कहलाता है। अधर्म से अहित और दु:ख होता है जो प्रतिषिद्ध कर्मो से उपजता है। अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों सम्मिलित रहते हैं। वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ १.द्रव्य: द्रव्य गिनती में ९ है पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।(विशैषिक १।१।५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। २. गुण: गुणों की संख्या चौबीस मानी गयी है जिनमें कुछ सामान्य ओर बाकी विशेष कहलाते हैं। जिन गुणो से द्रव्यों में विखराव न हो उन्हें सामान्य(संख्या, वेग, आदि) और जिनसे बिखराव (रूप,बुध्दि, धर्म आदि) उन्हें विशेष गुण कहते है। ३. कर्म: किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में कर्म की आवश्यकता होती है, इसलिए द्रव्य और गुण के साथ कर्म को भी मुख्य पदार्थ कहते हैं। चेलना,फेंकना, हिलना आदि सभी कर्म । मनुष्य के कर्म पुण्य-पाप रूप होते हैं। ४. सामान्य: मनुष्यों में मनुष्यत्व, वृक्षों में वृक्षत्व जाति सामान्य है और ये बहुतों में होती है। दिशा, काल आदि में जाति नहीं होती क्योंकि ये अपने आप में अकेली है। ५. विशेष: देश काल की भिन्नता के बाद भी एक दूसरे के बीच पदार्थ जो विलक्षणता का भेद होता है है वह उस द्रव्य में एक विशेष की उपस्थिति से होता है। उस पहचान या विलक्षण प्रतीति का एक निमित्त होता है-यथा गोमें गोत्व जाति से, शर्करा में मिठास से। ६. समभाव: जहाँ गुण व गुणी का संबंध इतना घना है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। ७. अभाव: इसे भी पदार्थ माना गया है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसका अभाव अथवा किसी एक वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों का अभाव (ये घट नहीं, पट है) आदि इसके उदाहरण है।


३. सांख्य दर्शन संख्य सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है। सांख्य सर्वाधिक पौराणिक दर्शन माना जाता है। भारतीय समाज पर इसका इतना व्यापक प्रभाव हो चुका था कि महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता),विभिन्न पुराणों, उपनिषदों, चरक संहिता और मनु संहिता में सांख्य के विशिष्ट उल्लेख मिलते है। इसके पारंपरिक जन्मदाता कपिल मुनि थे। सांख्य दर्शन में छह अध्याय और ४५१ सूत्र है। प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन कहते है। सांख्य सांख्या द्योतक है। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन इसलिए पड़ा कि इसमें २५ तत्व या सत्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। पुरूष में स्वयं आत्मा का भाव है जबकि प्रकृति पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। विश्व की आत्मायें संख्यातीत है जिसमें चेतना तो है पर गुणों का अभाव है। वही प्रकृति मात्र तीन गुणो के समन्वय से बनी है। इस त्रिगुण सिद्धान्त के अनुसार सत्व, राजस्व तथा तमस की उत्पत्ति होती है। प्रकृति की अविकसित अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। सांख्य के अनुसार २४ मूल तत्व होते है जिसमें प्रकृति और पुरूष पच्चीसवां है। प्रकृति का स्वभाव अन्तर्वर्ती और पुरूष का अर्थ व्यक्ति-आत्मा है। विश्व की आत्माएं संख्यातीत है। ये सभी आत्मायें समान है और विकास की तटस्थ दर्शिकाएं हैं। आत्माए¡ किसी न किसी रूप में प्रकृति से संबंधित हो जाती है और उनकी मुक्ति इसी में होती है कि प्रकृति से अपने विभेद का अनुभव करे। जब आत्माओं और गुणों के बीच की भिन्नता का गहरा ज्ञान हो जाये तो इनसे मुक्ति मिलती है और मोक्ष संभव होता है। प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था को कहते है। तीनो आवेश परस्पर एक दूसरे को नि:शेष (neutralize) कर रहे होते हैं। जैसे त्रिकंटी की तीन टांगे एक दूसरे को नि:शेष कर रही होती है। परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है।रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है। इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें परमाणु की तीन शक्तिया बर्हिमुख होने से आस-पास के परमाणुओ को आकर्षित करने लगती है। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। तीन प्रकार के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में इलेक्टोन कहते है। दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह वैकारिक अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटोन कहते है। तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है इसे वर्तमान विज्ञान की भाषा में न्यूटोन कहते है। यह भूतादि अहंकार है। इन अहंकारों को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है। तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है अर्थात् तीनों अहंकार जब एक समूह में आते है तो वे परिमण्डल कहाते है। और भूतादि अहंकार एक स्थान पर (न्यूयादि संख्या में) एकत्रित हो जाते है तो भारी परमाणु-समूह बीच में हो जाते है और हल्के उनके चारो ओर घूमने लगते है। इसे वर्तमान विज्ञान `ऐटम´ कहता है। दार्शनिक भाषा में इन्हें परिमण्डल कहते हैं। परिमण्डलों के समूह पाँच प्रकार के हैं। इनको महाभूत कहते हैं। १ पार्थिव २ जलीय ३ वायवीय ४ आग्नेय ५ आकाशीय संख्या का प्रथम सूत्र है। अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १ ।। अर्थात् अब हम तीनों प्रकार के दु:खों-आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न का इस ग्रन्थ में वर्णन कर रहे हैं। सांख्य का उद्देश्य तीनो प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना है। तीन दु:ख है। आधिभैतिक- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि। आधिदैविक- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप । आध्यात्मिक- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है। सांख्य का एक अन्य सूत्र है- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान, महतोSहंकारोSहंकारात् पंचतन्मात्राण्युभयमिनिन्द्रियं तन्मात्रेभ्य: स्थूल भूतानि पुरूष इति पंचविंशतिर्गण:।। अर्थात् सत्व, रजस और तमस की साम्यावस्था को प्रकृतिकहते है। साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं: महत् तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गण है पुरूष।


१. पूर्व मीमांसा मीमांसा शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा। अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। इसके सोलह अध्याय हैं मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है। दस दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। इस ग्रन्थ में १२ अध्याय, ६० पाद और २,६३१ सूत्र है। ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है- अधातो धर्मजिज्ञासा।। अब धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए यह पूर्ण १६ अध्याय वाला ग्रन्थ रचा गया है। कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है। अत: इसके विषय में १६ अध्याय और ६४ पादोंवाला ग्रन्थ लिखना उचित ही था। यहाँ हम इस ग्रन्थ की झलक मात्र भी देने में असमर्थ हैं। केवल इतना बता देना ही पर्याप्त समझते है कि धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कायो का समावेश हो जाता है। बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही है। एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है। सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है। ज्ञान उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा इसमें की गई है, वे है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है। मीमांसा सिद्धान्त में वक्तव्य के दो विभाग है- पहला है अपरिहार्य विधि जिसमें उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग और अधिकार विधियां शामिल है। दूसरा विभाग है अर्थवाद जिसमें स्तुति और व्याख्या की प्रधानता है।


भगवद्गीता २-३९ और १३-४ में कहा है कि : एषा तेSभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु। बुद्धया युक्तो यथा पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। गीता २-३९ -हे अर्जुन! यह बुध्दि(ज्ञान) जो सांख्य के अनुसार मैंने तुझे कही है, अब यही बुध्दि मैं तुझे योग के अनुसार कहू¡गा, जिसके ज्ञान से तू कर्म-बन्धन को नष्ट कर सकेगा। ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविषै: पृथक्। ब्रह्यसूत्रपवैश्चैव हेतुमदिभर्विनिधैश्चितै:।।४।। गीता१३-४ इस क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मतत्वों) के विषय में ऋषियों ने वेदों ने विविध भाँति से समझाया है। (इन्ही के विषय) में ब्रह्यसूत्रों में पृथक्-पृथक् (शरीर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में) युक्तियुक्त ढंग से (तर्क से) कथन किया है।


वेद ज्ञान को समझने व समझाने के लिए दो प्रयास हुए: १. दर्शनशास्त्र २. ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थ। ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थों में अपने-अपने विषय के आप्त ज्ञाताओं द्वारा अपने शिष्यों, श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों की मूल वैदिक ज्ञान सरल भाषा में विस्तार से समझाया है। यह ऐसे ही है जैसे आज के युग में आइन्सटाइन को Theory of Relatively व अन्य विषयों का आप्त ज्ञाता माना जाता है तथा उसके कथनों व लेखों को अधिकांश लोग, बगैर ज्यादा अन्य प्रमाण के सत्यच मान लेते है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जो कि आइन्सटाइन की इन विषयों में सिद्धहस्ता (आप्तता) पर संदेह करते है, उनको समझाने के लिए तर्क (Logic) की आवश्यकता है। इसी तरह वेद ज्ञान को तर्क से समझाने के लिए छइ दर्शन शास्त्र लिखे गये। सभी दर्शन मूल वेद ज्ञान को तर्क से सिद्ध करते है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र का अपना-अपना विषय है। यह उसी तरह है जैसे कि भौतिक विज्ञान (Physics) में Newtonian Physics, Maganetism Atomi Physics, इत्यादि है। दर्शन शास्त्र सूत्र रूप में लिखे गये है। प्रत्येक दर्शन अपने लिखने का उद्देश्य अपने प्रथम सूत्र में ही लिख तथा अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति का सूत्र देता है। वैदिक ज्ञान की अद्वितीय पुस्तक भगवद्गीता के ज्ञान का आधार वेद, उपनिषद और दर्शन शास्त्र ही है।


षड्दर्शन उन भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों के मंथन का परिपक्व परिणाम है जो हजारों वर्षो के चिन्तन से उतरा और हिन्दू (वैदिक) दर्शन के नाम से प्रचलित हुआ। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है। दर्शन और उनके प्रणेता निम्नलिखित है। १ पूर्व मीमांसा: महिर्ष जैमिनी २ वेदान्त (उत्तर मीमांसा): महिर्ष बादरायण ३ सांख्य: महिर्ष कपिल ४ वैशेषिक: महिर्ष कणाद ५ न्याय: महिर्ष गौतम ६ योग: महिर्ष पतंजलि


इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध में भी विचार प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है- 1- प्रथम अध्याय में वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है। 2- द्वितीय अध्याय का विषय ‘अविरोध’ है। इसके अन्तर्गत श्रुतियों की जो परस्पर विरोधी सम्मतियाँ हैं, उनका मूल आशय प्रकट करके उनके द्वारा अद्वैत सिद्धान्त की सिद्धि की गयी है। इसके साथ ही वैदिक मतों (सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत आदि) एवं अवैदिक सिद्धान्तों (जैन, बौद्ध आदि) के दोषों एवं उनकी अयथार्थता को दर्शाया गया है। आगे चलकर लिंग शरीर प्राण एवं इन्द्रियों के स्वरूप दिग्दर्शन के साथ पंचभूत एवं जीव से सम्बद्ध शंकाओं का निराकरण भी किया गया है। 3- तृतीय अध्याय की विषय वस्तु साधना है। इसके अन्तर्गत प्रथमत: स्वर्गादि प्राप्ति के साधनों के दोष दिखाकर ज्ञान एवं विद्या के वास्तविक स्रोत्र परमात्मा की उपासना प्रतिपादित की गयी है, जिसके द्वारा जीव ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कर्मकाण्ड सिद्धान्त के अनुसार मात्र अग्निहोत्र आदि पर्याप्त नहीं वरन् ज्ञान एवं भक्ति द्वारा ही आत्मा और परमात्मा का सान्निध्य सम्भव है। 4- चतुर्थ अध्याय साधना का परिणाम होने से फलाध्याय है। इसके अन्तर्गत वायु, विद्युत एवं वरुण लोक से उच्च लोक-ब्रह्मलोक तक पहुँचने का वर्णन है, साथ ही जीव की मुक्ति, जीवन्मुक्त की मृत्यु एवं परलोक में उसकी गति आदि भी वर्णित है। अन्त में यह भी वर्णित है कि ब्रह्म की प्राप्ति होने से आत्मा की स्थिति किस प्रकार की होती है, जिससे वह पुन: संसार में आगमन नहीं करती। मुक्ति और निर्वाण की अवस्था यही है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन में ईश्वर, प्रकृति, जीव, मरणोत्तर दशाएँ, पुनर्जन्म, ज्ञान, कर्म, उपासना, बन्धन एवं मोक्ष इन दस विषयों का प्रमुख रूप से विवेचन किया गया है। वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा ब्रह्मसूत्र के अतिरिक्त वेदान्त दर्शन का और भी साहित्य प्रचुर मात्रा में संप्राप्त होता है, जो विभिन्न आचार्यों ने विविध प्रकारेण ब्रह्म-सूत्र आदि ग्रन्थों पर भाष्य, वृत्तियाँ टीकाएँ आदि लिखी हैं। यद्यपि प्राचीन आचार्यों में बादरि, आश्मरथ्य, आत्रेय, काशकृत्स्न, औडुलोमि एवं कार्ष्णाजिनि आजि के मतों का भी वर्णन प्राप्त है; किन्तु इनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। आइये जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनका व उनके आचार्यों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें। श्रृंगेरी पीठ के प्रतिष्ठित यति श्री विद्यारण्य स्वामी ने वेदान्त विषयक कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें ‘पंचदशी’ का विशेष स्थान है। इनके अन्य ग्रन्थ हैं- जीवन्मुक्ति विवेक, विवरण प्रमेय संग्रह, बृहदारण्यक वार्तिक सार आदि। 1- आद्य शंकराचार्य– ब्रह्म-सूत्र पर सर्वप्राचीन एवं प्रामाणिक भाष्य आद्य शंकराचार्य का उपलब्ध होता है। यह शांकरभाष्य के नाम से प्रख्यात है। विश्व में भारतीय दर्शन एवं शंकराचार्य के नाम से जितनी ख्याति प्राप्त की है, उतनी न किसी आचार्य ने प्राप्त की और न ग्रन्थ ने। शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में तथा निर्वाण 820 ई. में हुआ बताया जाता है, इनके गुरु गोविन्दपाद तथा परम गुरु गौड़पादाचार्य थे। इनके ग्रन्थों में ब्रह्मसूत्र-भाष्य (शारीरिक भाष्य), दशोपनिषद् भाष्य, गीता-भाष्य, माण्डूक्यकारिका भाष्य, विवेकचूड़ामणि, उपदेश-साहस्री आदि प्रमुख हैं। 2- भास्कराचार्य– आचार्य शंकर के समकालीन भास्कराचार्य त्रिदण्डीमत के वेदन्ती थे। ये ज्ञान एवं कर्म दोनों से मोक्ष स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार ब्रह्म के शक्ति-विक्षेप से ही सृष्टि और स्थिति व्यापार अनवरत चलता है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक लघु भाष्य लिखा है। 3- सर्वज्ञात्म मुनि– ये सुरेश्वराचार्य के शिष्य थे, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक पद्यात्मक व्याख्या लिखी है, जो ‘संक्षेप-शारीरिक’ नाम से प्रसिद्ध है। 4- अद्वैतानन्द– ये रामानन्द तीर्थ के शिष्य थे, इन्होंने शंकराचार्य की शारीरिक भाष्य पर ‘ब्रह्मविद्याभरण’ नामक श्रेष्ठ व्याख्या लिखी है। 5- वाचस्पति मिश्र– वाचस्पति मिश्र ने भी शांकर- भाष्य पर ‘भामती’ नामक उत्तम व्याख्या ग्रन्थ लिखा है। ‘ब्रह्मतत्त्व समीक्षा’ नामक वेदान्त ग्रन्थ इन्हीं का है। 6- चित्सुखाचार्य– तेरहवीं सदी के चित्सुखाचार्य ने वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘तत्त्व-दीपिका’ नाम से लिखा, जिसने उन्हीं के नाम से ‘चित्सुखी’ के रूप में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। 7- विद्यारण्य स्वामी– 8- प्रकाशात्मा– इन्होंने पद्मपादकृत पंचपादिका पर ‘विवरण’ नाम की व्याख्या का सृजन किया है। इसी के आधार पर ‘भामती प्रस्थान’ से पृथक् ‘विवरण प्रस्थान’ निर्मित हुआ है। 9- अमलानन्द– अमलानन्द (जो अनुभवानन्द के शिष्य थे) ने भामती पर ‘कल्पतरु’ नामक व्याख्या एवं ब्रह्मसूत्र पर एक वृत्ति भी लिखी है। इसका अपर नाम ‘व्यासाश्रम’ था।


वेदान्त का अर्थ- वेदान्त का अर्थ है- वेद का अन्त या सिद्धान्त। तात्पर्य यह है- ‘वह शास्त्र जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है। वेदांत में जितनी बातों का उल्लेख है, उन सब का मूल उपनिषद् है। इसलिए वेदान्त शास्त्र के वे ही सिद्धान्त माननीय हैं, जिसके साधक उपनिषद् के वाक्य हैं। इन्हीं उपनिषदों को आधार बनाकर बादरायण मुनि ने ब्रह्मसूत्रों की रचना की।’ इन सूत्रों का मूल उपनिषदों में हैं। जैसा पूर्व में कहा गया है- उपनिषद् में सभी दर्शनों के मूल सिद्धान्त हैं। वेदान्त का साहित्य ब्रह्मसूत्र- उपरिवर्णित विवेचन से स्पष्ट है कि वेदान्त का मूल ग्रन्थ उपनिषद् ही है। अत: यदा-कदा वेदान्त शब्द उपनिषद् का वाचक बनता दृष्टिगोचर होता है। उपनिषदीय मूल वाक्यों के आधार पर ही बादरायण द्वारा अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादन हेतु ब्रह्मसूत्र सृजित किया गया। महर्षि पाणिनी द्वारा अष्टाध्यायी में उल्लेखित ‘भिक्षुसूत्र’ ही वस्तुत: ब्रह्मसूत्र है। संन्यासी, भिक्षु कहलाते हैं एवं उन्हीं के अध्ययन योग्य उपनिषदों पर आधारिक पराशर्य (पराशर पुत्र व्यास) द्वारा विरचित ब्रह्म सूत्र है, जो कि बहुत प्राचीन है। यही वेदांत दर्शन पूर्व मीमांसा के नाम से प्रख्यात है। महर्षि जैमिनि का मीमांसा दर्शन पूर्व मीमांसा कहलाता है, जो कि द्वादश अध्यायों में आबद्ध है। कहा जाता है कि जैमिनि द्वारा इन द्वादश अध्यायों के पश्चात् चार अध्यायों में संकर्षण काण्ड (देवता काण्ड) का सृजन किया था। जो अब अनुपलब्ध है, इस प्रकार मीमांसा षोडश अध्यायों में सम्पन्न हुआ है। उसी सिलसिले में चार अध्यायों में उत्तर मीमांसा या ब्रह्म-सूत्र का सृजन हुआ। इन दोनों ग्रन्थों में अनेक आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि बीस अध्यायों के रचनाकार कोई एक व्यक्ति थे, चाहे वे महर्षि जैमिनि हों अथवा बादरायण बादरि। पूर्व मीमांसा में कर्मकाण्ड एवं उत्तर मीमांसा में ज्ञानकाण्ड विवेचित है। उन दिनों विद्यमान समस्त आचार्य पूर्व एवं मीमांसा के समान रूपेण विद्वान् थे। इसी कारण जिनके नामों का उल्लेख जैमिनीय सूत्र में है, उन्हीं का ब्रह्मसूत्र में भी है। वेदान्त संबंधी साहित्य प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, जिसका उल्लेख अग्रिम पृष्ठों पर ‘वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा’ शीर्षक में आचार्यों के नामों सहित विवेचित किया गया है। वेदान्त दर्शन का स्वरूप और प्रतिपाद्य-विषय ‘वेदों’ के सर्वमान्य, सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त ही ‘वेदान्त’ का प्रतिपाद्य हैं। उपनिषदों में ही ये सिद्धान्त मुख्यत: प्रतिपादित हुए हैं, इसलिए वे ही ‘वेदान्त’ के पर्याय माने जाते हैं। परमात्मा का परम गुह्य ज्ञान वेदान्त के रूप में सर्वप्रथम उपनिषदों में ही प्रकट हुआ है। ‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्था:…..’(मुण्डक. )। ‘वेदान्ते परमं गुह्यम् पुराकल्पे प्रचोदितम्’ (श्वेताश्ववतर. ) ‘यो वेदादौ स्वर: प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठित:’ (महानारायण, ) इत्यादि श्रुतिवचन उसी तथ्य का डिंडिम घोष करते हैं। इन श्रुति वचनों का सारांश इतना ही है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका का मूल स्रोत्र एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही है


दूसरे वाचस्पति मिश्र भी मिथिला के ही मधुबनी थाना के समौल गाँव के निवासी थे। ये पन्द्रहवीं सदी के अंत और सोलहवीं सदी के प्रारम्भ के राजा भैरव सिंह के समकालीन थे जिनका राज्य १५१५ तक था और फिर राजा रामभद्र के समय अंतिम पुस्तक लिखी। जिनकी रचित ४१ पुस्तकें हैं (१० दर्शन पर और ३१ स्मृति पर) दर्शन पर  १. न्याय तत्वलोक २. न्याय सुत्रोद्धार ३. न्याय रत्नप्रकाश ४. प्रत्यक्ष निर्णय ५. शब्द निर्णय ६. अनुमान निर्णय ७. खंडनोद्धार ८. गंगेश के तत्वचिंतामणि पर टीका ९. अनुमानखंड पर टीका १०. न्याय -चिंतामणि प्रकाश शब्द खंडन पर टीका स्मृति पर  १. कृत्य चिंतामणि २. शुद्धि चिंतामणि ३. तीर्थ चिंतामणि ४. आचार चिंतामणि ५. आन्हिक चिंतामणि ६. द्वैत चिंतामणि ७. नीति चिंतामणि (संभवतः नवटोल के लूटन झा के साथ, पर कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं, किन्तु विवाद चिंतामणि में इसका सन्दर्भ दिया गया है) ८. विवाद चिंतामणि ९. व्यव्हार चिंतामणि १०. शूद्राचार चिंतामणि ११. श्राद्ध चिंतामणि १२. तिथि चिंतामणि १३. द्वैत निर्णय १४. महादान निर्णय १५. विवाद निर्णय १६. शुद्धि निर्णय १७. कृत्य महार्णव १८. गया श्राद्ध पद्धति १९. चन्दन धेनु प्रमाण २०. दत्तक विधि या दत्तक पुत्रेष्टि यज्ञविधि २१ . छत्र योगो धुत दोषंती विधि २२. श्राद्ध विधि २३. गया पत्तलक २४. तीर्थ कल्पलता २५. तीर्थलता २६ . श्राद्धकल्प २७. कृत्य प्रदीप २८. सार संग्रह २९. पितृभक्ति तरंगिणी ? ३०. व्रत निर्णय का पूर्वार्ध


दूसरे वाचस्पति मिश्र भी मिथिला के ही मधुबनी थाना के समौल गाँव के निवासी थे। ये पन्द्रहवीं सदी के अंत और सोलहवीं सदी के प्रारम्भ के राजा भैरव सिंह के समकालीन थे जिनका राज्य १५१५ तक था और फिर राजा रामभद्र के समय अंतिम पुस्तक लिखी। जिनकी रचित ४१ पुस्तकें हैं (१० दर्शन पर और ३१ स्मृति पर) दर्शन पर  १. न्याय तत्वलोक २. न्याय सुत्रोद्धार ३. न्याय रत्नप्रकाश ४. प्रत्यक्ष निर्णय ५. शब्द निर्णय ६. अनुमान निर्णय ७. खंडनोद्धार ८. गंगेश के तत्वचिंतामणि पर टीका ९. अनुमानखंड पर टीका १०. न्याय -चिंतामणि प्रकाश शब्द खंडन पर टीका स्मृति पर  १. कृत्य चिंतामणि २. शुद्धि चिंतामणि ३. तीर्थ चिंतामणि ४. आचार चिंतामणि ५. आन्हिक चिंतामणि ६. द्वैत चिंतामणि ७. नीति चिंतामणि (संभवतः नवटोल के लूटन झा के साथ, पर कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं, किन्तु विवाद चिंतामणि में इसका सन्दर्भ दिया गया है) ८. विवाद चिंतामणि ९. व्यव्हार चिंतामणि १०. शूद्राचार चिंतामणि ११. श्राद्ध चिंतामणि १२. तिथि चिंतामणि १३. द्वैत निर्णय १४. महादान निर्णय १५. विवाद निर्णय १६. शुद्धि निर्णय १७. कृत्य महार्णव १८. गया श्राद्ध पद्धति १९. चन्दन धेनु प्रमाण २०. दत्तक विधि या दत्तक पुत्रेष्टि यज्ञविधि २१ . छत्र योगो धुत दोषंती विधि २२. श्राद्ध विधि २३. गया पत्तलक २४. तीर्थ कल्पलता २५. तीर्थलता २६ . श्राद्धकल्प २७. कृत्य प्रदीप २८. सार संग्रह २९. पितृभक्ति तरंगिणी ? ३०. व्रत निर्णय का पूर्वार्ध


वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। वादावली जीवनी वाचस्पति मिश्र प्रथम मिथिला के ब्राह्मण थे जो भारत और नेपाल सीमा के निकट मधुबनी के पास अन्धराठाढी गाँव के निवासी थे। इन्होने वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त अन्य सभी पाँचो आस्तिक दर्शनों पर टीका लिखी है। उनके जीवन का वृत्तान्त बहुत कुछ नष्ट हो चुका है। ऐसा माना जाता है कि उनकी एक कृति का नाम उनकी पत्नी भामती के नाम पर रखा है। कार्य वाचस्पति मिश्र प्रथम ने उस समय की हिन्दुओं के लगभग सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमुख कृतियों पर भाष्य लिखें हैं। इसके अतिरिक्त तत्वबिन्दु नामक एक मूल ग्रन्थ भी लिखा है जो भाष्य नहीं है। 1. तत्त्ववैशारदी – योगभाष्य पर टीका, 2. तत्त्वकौमुदी - सांख्यकारिका पर टीका, 3. न्यायसूची निबन्ध – न्यायसूत्र सम्बन्धी, 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका – न्यायवार्तिक पर टीका, 5. न्याय कणिका – मण्डनमिश्र के विधिविवेक ग्रन्थ पर टीका, 6. भामती - ब्रह्मसूत्र पर टीका सर्वाधिक मान्य एवं आदरणीय 7. तत्त्वसमीक्षा – ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ का टीका, 8. ब्रह्मसिद्धि - वेदान्त विषयक ग्रन्थ 9. तत्त्वबिन्दु – शब्दतत्त्व तथा शब्दबोध पर आधारित लघु ग्रन्थ,