Friday, 21 October 2016
४. वैशेषिक दर्शन मूल पदार्थ-परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का वर्णन तो ब्रह्यसूत्र में है। ये तीन पदार्थ ब्रह्य कहाते है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। इनका वर्णन वैशेषिक दर्शन में है। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष कणाद है। चूंकि ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है। वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र है- अथातो धर्म व्याख्यास्याम:।। अब हम धर्म की व्याख्या करेंगे। यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:।। जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है वह धर्म है। कणाद के वैशेषिक दर्शन की गौतम के न्याय-दर्शन से भिन्नता इस बात में है कि इसमें छब्बीस के बजाय ७ ही तत्वों को विवेचन है। जिसमें विशेष पर अधिक बल दिया गया है। ये तत्व है-द्रव्य, गुण, कर्म, समन्वय,विशेष और अभाव। वैसे वैशेषिक दर्शन बहुत कुछ न्याय दर्शन के समरूप है और इसका लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। न्याय-दर्शन की तरह वैशेषिक भी प्रश्नोत्तर के रूप में ही लिखा गया है। जगत में पदार्थों की संख्या केवल छह है। द्रव्य,गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय। क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम वैशेषिक दर्शन है। धर्म विशेष पसूताद द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां पदार्थांना सधम्र्यवैधम्र्याभ्यिं तत्वज्ञानान्नि: श्रेयसम्।। वैशेषिक १|१|८ अर्थात् धर्म-विशेष से उत्पन्न हुए पदार्थ यथा,द्रव्य,गण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-रूप पदार्थों के सम्मिलित और विभक्त धर्मो के अघ्ययन-मनन और तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। ये मोक्ष विश्व की अणुवीय प्रकृति तथा आत्मा से उसकी भिन्नता के अनुभव पर निर्भर कराता है। वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का निरूपण निम्नलिखित रूप से हुआ है: जल: यह शीतल स्पर्श वाला पदार्थ है। तेज: उष्ण स्पर्श वाला गुण है। काल: सारे कायो की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है। आत्मा: इसकी पहचान चैतन्य-ज्ञान है। मन: यह मनुष्य क अभ्यन्तर में सुख-दु:ख आदिके ज्ञान का साधन है। पंचभूत: पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पंच इन्द्रिय: घ्राण, रसना, नेत्र, त्वचा और श्रोत्र पंच-विषय: गंध,रस,रूप,स्पर्श तथा शब्द बुध्दि: ये ज्ञान है और केवल आत्मा का गुण है। नया ज्ञान अनुभव है और पिछला स्मरण । संख्या: संख्या, परिमाण, पृथकता, संयोग और विभाग ये आदि गुण: सारे गुण द्रव्यों में रहते हैं। अनुभव: यथार्थ(प्रमा, विद्या) एवं अयथार्थ, (अविद्या) स्मृति: पूर्व के अनुभव के संस्कारों से उत्पन्न ज्ञान सुख: इष्ट विषय की प्राप्ति जिसका स्वभाव अनुकूल होता है। अतीत के विषयों के स्मरण एवं भविष्यतमें उनके संकल्प से सुख होता है।सुख मनुष्य का परमोद्देश्य होता है। दु:ख: इष्ट के जाने या अनिष्ट के आने से होता है जिसकी प्रकृति प्रतिकूल होती है। इच्छा: किसी अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना ही इच्छ है जो फल या उपाय के हेतु होती है। धर्म, अधर्म या अदृष्ठ: वेद-विहित कर्म जो कर्ता के हित और मोक्ष का साधन होता है, धर्म कहलाता है। अधर्म से अहित और दु:ख होता है जो प्रतिषिद्ध कर्मो से उपजता है। अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों सम्मिलित रहते हैं। वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ १.द्रव्य: द्रव्य गिनती में ९ है पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।(विशैषिक १।१।५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। २. गुण: गुणों की संख्या चौबीस मानी गयी है जिनमें कुछ सामान्य ओर बाकी विशेष कहलाते हैं। जिन गुणो से द्रव्यों में विखराव न हो उन्हें सामान्य(संख्या, वेग, आदि) और जिनसे बिखराव (रूप,बुध्दि, धर्म आदि) उन्हें विशेष गुण कहते है। ३. कर्म: किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में कर्म की आवश्यकता होती है, इसलिए द्रव्य और गुण के साथ कर्म को भी मुख्य पदार्थ कहते हैं। चेलना,फेंकना, हिलना आदि सभी कर्म । मनुष्य के कर्म पुण्य-पाप रूप होते हैं। ४. सामान्य: मनुष्यों में मनुष्यत्व, वृक्षों में वृक्षत्व जाति सामान्य है और ये बहुतों में होती है। दिशा, काल आदि में जाति नहीं होती क्योंकि ये अपने आप में अकेली है। ५. विशेष: देश काल की भिन्नता के बाद भी एक दूसरे के बीच पदार्थ जो विलक्षणता का भेद होता है है वह उस द्रव्य में एक विशेष की उपस्थिति से होता है। उस पहचान या विलक्षण प्रतीति का एक निमित्त होता है-यथा गोमें गोत्व जाति से, शर्करा में मिठास से। ६. समभाव: जहाँ गुण व गुणी का संबंध इतना घना है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। ७. अभाव: इसे भी पदार्थ माना गया है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसका अभाव अथवा किसी एक वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों का अभाव (ये घट नहीं, पट है) आदि इसके उदाहरण है।
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